Monday, September 19, 2022

आध्यात्मिक स्वास्थ्य योग विज्ञान द्वारा जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति संभव है

आध्यात्मिक स्वास्थ्य योग विज्ञान द्वारा 

जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति संभव है

स्वास्थ्य एवं जीवन यापन की दृष्टि से श्रेष्ठ उच्च स्तरीय जीवन की अभिलाषा करना सात्विक प्रवत्ति के विवेकशील मनुष्यों का लक्ष्य होता है। 

वास्तव में ऐसे प्रज्ञावान आत्म-साधकों का जीवन प्राणी मात्र के प्रति करुणा, दया और अनुकम्पा, ‘‘सर्व जीव हिताय, सर्व जीव सुखाय’’ की लोकोक्ति को सार्थक करने का होता है। उनके कर्म  और साधना का मूल उद्देष्य आत्मा को निर्मल, शुद्ध, पवित्र बनाना होता है। अर्थात् आत्म-पोषण का होता है। 

आत्मिक शांति पाने की प्रबल कामना बिरले ही लोगों में होती है।भले ही उन्हें कभी-कभी उसके लिए शरीर को कितना ही कष्ट ही क्यों न देना पड़े? उनके जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभरुपी कषायों की मन्दता होने से वे अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में परेशान नहीं होते। उनमें प्रायः मानसिक आवेग नहीं आते जो हमारे शरीर में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित कर रोग का मुख्य कारण होते हैं।

 तितिक्षा सिद्ध ऐसे व्यक्ति सहनशील, सहिष्णु निर्भीक, और धैर्यवान होते है। वाणी में विवेक और मधुरता का सदैव ख्याल रखते हैं। उनका उद्देष्य होता है जीवन में चिरस्थायी आनन्द, शक्ति एवं स्वाधीनता की प्राप्ति कैसे सुनिश्चित की जाए। 

ऐसे साधक व्यक्ति स्वयं के द्वारा स्वयं से अनुशासित होते हैं। उनका जीवन शान्त, सन्तोषी, संयमी, सहज, संतुलित एवं सरल होता है। विचारों में अनेकान्तता, भावों में मैत्री, करूणा, प्रमोद तथा मध्यस्थता अर्थात् सहजता, स्वदोष-दृष्टि, सजगता, सहनशीलता, सहिष्णुता, दया, सरलता, सत्य, विवेक, संयम, नैतिकता आदि गुणों का प्रादुर्भाव सहज परिलक्षित होता है। जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रायः समभाव, निस्पृहता, अनासक्ति विकसित होती है।तब व्यक्ति निर्भय, तनाव मुक्त बन जाता है। वाणी में सत्य के प्रति निष्ठा, सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, मैत्री, परोपकार जैसी भावना और मधुरता प्रतिध्वनित होने लगती है। व्यक्ति का मनोबल और आत्मबल विकसित होने लगता है। व्यक्ति स्वावलम्बी, स्वाधीन बनने लगता है। अर्थात् स्थितप्रज्ञता की ओर अभिमुख हो ऐसा विशिष्ट साधक अभ्युदय यानि मनोरथों को सिद्ध कर लेता है।

वस्तुतः भारत की जीवन पद्धति के मूल में अध्यात्म है| अध्यात्म का अर्थ है आत्मनि "अधि "अर्थात अपने भीतर| मानव शरीर के अंदर की जो भी भाव स्थितियां हैं वह "अध्यात्म" है| 

मानव शरीर में दो प्रकार की भाव स्थितियां होती हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर लेकिन उसके विपरीत गुणों के रुप में शांति, करुणा, दया, त्याग, प्रेम, सहिष्णुता सहयोग की भावना भी मानव के स्वभाव का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है| जब कोई मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार से ग्रस्त होकर कोई कार्य करता है तो वह आध्यात्मिक ताप होता है, जिसकी परिणति दु:ख तथा निराशा में होती है, किन्तु जब कभी मनुष्य में करुणा, दया, त्याग की भावना जागृत होती है और उससे प्रेरित होकर जब वह कोई कार्य करता है, तो उससे जो आनंद या प्रसन्नता मिलती है, वह आध्यात्मिक सुख कहलाता है|यह अवस्था आत्मिक शांति की अनुभूति की होती है।

इस तरह भारतीय चिंतकों तथा वैदिक ऋषियों ने मानव जीवन को सुखी और शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए सदैव आध्यात्मिक स्तर पर मनुष्य की चेतना को विकसित करने का अभिनव प्रयास किया है| जीवन में हर मनुष्य आध्यात्मिक ताप से सदैव मुक्त रहे और आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थात आंतरिक रुप से मनुष्य सदैव नि:श्रेयस भाव से अपने अभ्युदय के मार्ग पर चले, यही भारतीय संस्कृति और जीवन दर्शन का मूल आधार रहा है| यही कारण है कि भारतीय मनीषा में सदैव मानव के आध्यात्मिक उत्कर्ष को सबसे अधिक महत्व दिया गया है|

अध्यात्म की अभीप्सा जगाना स्वयं के रूपांतरण की शुरुआत होती है।

‘‘अध्यात्म का गंतत्य एवं मंतत्य है, शुद्ध चेतना में अवगाहन तथा सत्य का साक्षात्कार|’’ शुद्ध चेतना में अवगाहन का उद्देश्य है अपने ‘स्व’ में प्रतिष्ठित होना, तभी तो प्राचीन ऋषि कहता है ‘आत्मान विद्धि’ स्वयं को जानो| यह स्वयंं को जानना, जीवन के मूल सत्व में, स्नोत में प्रतिष्ठित होना है| स्वयं के साथ मित्रता करके सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है| हमारे जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं, उन सभी के मूल में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष की ही कामना को दर्शाया गया है, चाहे वह श्रीमद् भागवत हो, या रामायण हो या फिर महाभारत का विशाल ग्रंथ ही क्यों न हो| इन ग्रंथों में जितने भी कथानक हैं, उन सभी का अंतिम संदेश यही है कि मानव स्वयं को जाने और फिर जैसा स्वयं के प्रति दूसरों से व्यवहार की कामना करता है, वैसा ही व्यवहार वह दूसरों से करें| यही दिव्य  आध्यात्मिक दृष्टि है| मानव का प्रकृति और सृष्टि के साथ तादात्म्य तथा उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार ही अध्यात्म का अभीष्ट है|

उदाहरण के लिए वैदिक ऋषि का आहवान है :

"मित्रस्त्र मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीशन्ताम

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे"

सम्पूर्ण प्राणीमात्र मुझ से मित्र भाव रखें, तथापि मेरा भी यही कर्तव्य है कि मैं भी सम्पूर्ण सृष्टि तथा प्रकृति के प्रति मित्रता का भाव रखूं| यह भाव सदैव व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार में बना रहें, यही आध्यात्म है| इसी भाव को हमारे सभी धर्म ग्रंथों में बड़े ही अच्छे ढंग से विभिन्न आख्यानों और कथाओं के माध्यम से बारंबार समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे आध्यात्मिक विकार और ताप का शमन हो और चित्त निष्कपट, सरल और विशुद्ध होकर सबके कल्याण के लिए प्रवृत्त हो, यही धर्म है|

 श्रीमद् भागवत में महर्षि वेदव्यास ने यही बात कही है-

धर्म:- प्रोज्झितकतवो त्र परमो निर्मत्सराणां सताम

इसी आध्यात्मिक भाव को कठोपनिषद के ऋषि ने कहा है कि जो व्यक्ति शरीर, मन और बुद्धि से अपने अस्तित्व को जान लेता है और अपने स्व में प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसे विशुद्ध आत्मानंद की अनुभूति होती है और वह आनंद शाश्‍वत होता है-

एक वशी सर्वमूतान्तरात्मा, एक रुप बहुदा य : करोति

तमात्म स्थं ये नुपश्यन्ति घारी:, तेषा सुख शाश्‍वंत नेत रेषाम

अर्थात् मानव के के अंत:करण की सभी प्रवृतियां निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब विराट के साथ एकाकार होने के लिए प्रयत्न करती हैं, उससे प्रसूत आनंद ही अध्यात्म है|

अतः भारतीय जीवन शैली अपने शुद्ध रूप में मूलतः आध्यात्मिक ही है| उसका प्रत्येक तत्व व पहलू अध्यात्म से भाविक है और सृजित है और उसका लक्ष्य एक ही है सत्य का साक्षात्कार और स्वयं में सत्य का अविष्कार जिसे महापुरुषों ने विद्वानों ने, अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषित किया है और जानने की कोशिश भी की है|अतः आध्यात्मिक स्वास्थ्य विज्ञान तथा योग द्वारा जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति संभव है।

भारतीय वैदिक वाङ्मय तथा संस्कृति इस सनातन आध्यात्मिक चेतना को एक नए दृष्टिबोध के साथ उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी भारत के राष्ट्र निर्माताओं और दार्शनिकों जिनमें स्वामी विवेकानंद, योगी श्री अरविंद, आचार्य श्री राम शर्मा ,महात्मा गांधीजी, विनोबा भावे आदि प्रमुख हैं, ने प्रस्तुत किया है।

डा सुरेंद्र सिंह विरहे

मनोदेहिक आरोग्य आध्यात्मिक स्वास्थ्य विषेशज्ञ

उप निदेशक मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी संस्कृति परिषद् संस्कृति विभाग मध्य प्रदेश शासन भोपाल

शोध समन्वयक

आध्यात्मिक नैतिक मूल्य शिक्षा शोध

धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग मध्य प्रदेश शासन भोपाल

utkarshfrom1998@gmail.com

9826042177,8989832149


No comments:

Post a Comment

प्रेम की बेबसी

 प्रेम की तडपन प्रेम की बेबसी  कितना आसान है किसी पुरुष का एक स्त्री से प्रेम कर लेना, और कुछ वक्त साथ बिताकर उसे भूल भी जाना! पुरुष के लिए ...