Saturday, September 17, 2022

सनातन संस्कृति की आत्मा हिंदू धर्म दर्शन है।

सनातन संस्कृति की आत्मा हिंदू धर्म दर्शन है।

भारतीय संस्कृति या हिंदू धर्म की प्राचीनता व इतिहास गाथा वेदों की उत्पत्ति से सिद्ध हुई है,  वेद की ऋचाएं इस दिव्य संस्कृति की नींव मूल आधार है। 

वेद धार्मिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका विस्तार उपनिषद उस दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं जिस पर सनातन परंपरा आधारित है। 

महान ऋषि,मुनियों,संतों की अंतर्दृष्टि और अनुभवों पर धर्म दर्शन आधारित है। दृश्य और द्रष्टा। चेतन तत्व , परम मीमांसा सत्य सनातन की खोज अनवरत जिज्ञासा यह अनिवार्य रूप से हिंदू धर्म दर्शन बोध विषयक जीवन का एक तरीका है, जिसे संस्कृत में सनातन धर्म के रूप में जाना जाता है। 

अत: सनातन का अर्थ है शाश्वत और धर्म का अर्थ है धार्मिकता या धर्म)।जिसे धारण किया जाता है।

वस्तुत: मनुष्य के शरीर में आत्मा की मौलिक अभिव्यक्ति की दशाएं विविध एवम स्तरीय हैं। यह चेतना के स्वरूप पर आधारित होकर निम्नतम,मध्यम व उच्चतम है।  

सनातन धर्म के लिए, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं नैतिक रूप से हमारी चेतना का विकास ही एकमात्र महत्वपूर्ण विषय है। नैतिक एवं सामाजिक नियमों एवं विधियों के एक संग्रह की तुलना में चेतना की ऊँचाई एवं गहराई अतुलनीय रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

वास्तव में चेतना का हमारी जीवन-शैली में बहुत महत्व है। मनोविज्ञान की दृष्टि में चेतना मानव में उपस्थित वह तत्त्व है जिसके कारण उस सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विशयों पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति हातेी है। मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक हातेी है। चेतना ही सभी पदार्थों की जड़-चतेन, शरीर-मन, निर्जीव-सजीव, मस्तिष्क-स्नायु आदि को बनाती है। उनका रूप निरूपित करती है। 

चेतना के विषय में स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में हाने वाली क्रियाओं अर्थात् कुछ नाड़ियों के स्पंदन का परिणाम ही चेतना है। यह अपने में स्वतन्त्र कोई अन्य तत्व नहीं है। शरीर चेतना के कार्य करने का यंत्र मात्र है, जिसे वह कभी उपयोग में लाती है और कभी नहीं लाती है। परन्तु यदि यंत्र बिगड़ जाए या टूट जाए तो चेतना अपने कामों के लिए अपंग हो जाती है। चेतना के बिना सुना व देखा नहीं जा सकता है। 

यह हमें अनुभव और भावनाओं की पहचान करने की अनुमति देता है। यही चेतना सही है जोकि भौतिक नहीं है लेकिन कुछ आध्यात्मिक है। इस प्रकार चेतना मनोदैहिक से बडकर आत्मिक अनुभूति है।

आत्मा का अनुसंधान सनातन धर्म की एकमात्र परम आवश्यक साधना है । प्रत्येक व्यक्ति के अनुभूति के तल पर आनंद और मूल पवित्रता की मुक्त अवस्था में, आत्मा सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ परिभाषित की गई है। स्वभावत:यह चित्त रूपेण, जब यह किसी विशेष मानव शरीर से जुड़ा होता है, तो यह मन, बुद्धि और अहंकार को जन्म देता है। माया के अस्तित्व के कारण, मूल अज्ञान, आत्मा गलती से शरीर, मन और बुद्धि के साथ अपनी पहचान बना लेता है। इस तरह यह मिथ्या तादात्म्य आत्मा के भौतिक अस्तित्व के बंधन और संसार में परिणामी पीड़ा और पीड़ा का कारण है।

भारतीय संस्कृति के अनुसार इस सांसारिक बंधन से मुक्ति (मोक्ष या मोक्ष) मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

 बुद्धि और अहंकार। माया के अस्तित्व के कारण, मूल अज्ञान, आत्मा गलती से शरीर, मन और बुद्धि के साथ अपनी पहचान बना लेता है। यह मिथ्या तादात्म्य आत्मा के भौतिक अस्तित्व के बंधन और संसार में परिणामी पीड़ा और पीड़ा का कारण है। 

इसलिए भारतीय संस्कृति के अनुसार इस सांसारिक बंधन से मुक्ति (मोक्ष या मोक्ष) मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य परम उत्कर्ष की प्राप्ति करना ऐसी मान्यता है।

मोक्ष (स्वतंत्रता या मोक्ष): जीवन का अंतिम उद्देश्य जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति या ईश्वर के साथ एकता प्राप्त करना है। यह मिलन सच्चे ज्ञान ( ज्ञान), भक्ति ( भक्ति) , या धार्मिक क्रिया ( कर्म) के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। पवित्रता, आत्म-संयम, सत्यता, अहिंसा और विश्वास आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं। भारतीय संस्कृति आत्मा और ईश्वर के सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक सच्चे गुरु ( आध्यात्मिक गुरु ) के महत्व पर जोर देती है ।

अस्तित्व की एकता: हिंदू धर्म का मानना ​​​​है कि ब्रह्मांड सार्वभौमिक आत्मा की अभिव्यक्ति है, जिसे उपनिषदों में ब्रह्म के रूप में जाना जाता है। ब्रह्म संसार की सभी चीजें और प्राणी बन गया है। इस प्रकार विश्व की घटनाओं की विविधता के पीछे पूर्ण एकता है। अंतर तभी प्रकट होता है जब ब्रह्मांड को केवल मन और इंद्रियों के माध्यम से देखा जाता है।

 वतुतः, जब आध्यात्मिक अनुभवों के माध्यम से साधक बुद्धिमानों द्वारा मन को पार किया जाता है, तो चेतना की उर्धगमिता के साथ  सार्वभौमिक आत्मा को नामों और रूपों के साथ सभी चीजों और प्राणियों के एकमात्र सार के रूप में देखा जाता है।

विचार की स्वतंत्रता : हिंदू धर्म ईश्वर के साथ एकता प्राप्त करने के कई तरीके प्रदान करता है। हिंदुओं का मानना ​​​​है कि सभी सच्चे धर्म भगवान के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। यह सिद्धांत निम्नलिखित श्लोक (ऋग्वेद 1.164.46) में शामिल है : 

"एकम सत विप्रः, बहुधा वदन्ति। "सत्य एक है, ज्ञानी उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।"

प्रत्येक व्यक्ति में सर्वोच्च ईश्वर की सर्वव्यापीता में अपने विश्वास के कारण, हिंदू धर्म सहिष्णुता और सार्वभौमिक सद्भाव सिखाता है। हिन्दू धर्म नास्तिक को भी तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखता। 

हिंदू धर्म की एक विशेषता इसकी ग्रहणशीलता और सर्वव्यापकता है। यह मानवता का, मानव स्वभाव का, पूरे विश्व का धर्म है। यह किसी अन्य प्रणाली की प्रगति का विरोध नहीं करने की परवाह करता है। इसलिए अन्य सभी धर्मों को अपनी सर्वव्यापी भुजाओं और सदा-विस्तारित तह में सम्मिलित करने में उसे कोई कठिनाई नहीं है।"

शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, किसी व्यक्ति की संभावित दिव्यता, विचार की स्वतंत्रता, ब्रह्मांडीय एकता, शब्द, कर्म और विचार में अहिंसा, जीवन के सभी रूपों के प्रति श्रद्धा, और कर्म का नियम: जैसा आप बोएंगे वैसा ही प्राप्त करेंगे। 

इसलिए प्रत्येक व्यक्ति स्वधर्म पालन एवम स्वानुसाशन के महत्व को जानकर सार्थक जीवन का अनुसरण करें।

सनातन धर्म स्वयं जीवन है, वह पूर्ण एवं विकासशील है, और इसे इसी रूप में जानना एवं देखना चाहिए।

सनातन धर्म, विकासमूलक अध्यात्म तथा योग के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं वैश्विक केंद्र विश्व गुरु भारत बनें ऐसी कर्तव्य  अभिलाषा स्वयं में जगाएं।

हम दिव्य ध्येय के अनुगामी बनें स्वयं की गहनता में ज्ञान और तपस्या की उस शक्ति एवं ज्योति को जागृत करें जो कि हमारे राष्ट्र की आत्मा में नित्य सनातन धर्म के रूप में वास करती है यह दिव्य भारत की सांस्कृतिक पहचान है।



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