सनातन धर्म संस्कृति में आध्यात्मिक उत्कर्ष की अवधारणा:
सनातन धर्म हिंदू भारतीय संस्कृति आध्यात्म की प्रेरक मानवतावादी संस्कृति है।
‘‘अध्यात्म का गंतत्य एवं मंतत्य है, शुद्ध चेतना में अवगाहन तथा सत्य का साक्षात्कार।’’ शुद्ध चेतना में अवगाहन का उद्देश्य है अपने ‘स्व’ में प्रतिष्ठित होना, तभी तो प्राचीन ऋषि कहता है ‘आत्मान विद्धि’ स्वयं को जानो।
यह स्वयंं को जानना, जीवन के मूल सत्व में, स्नोत में प्रतिष्ठित होना है । स्वयं के साथ मित्रता करके सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है।
सनातन हिंदू धर्म के जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं, उन सभी के मूल में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष की कामना ही है,
चाहे वह श्रीमद् भागवत हो, या रामायण हो या फिर महाभारत का विशाल ग्रंथ ही क्यों न हो। इन ग्रंथों में जितने भी कथानक हैं, उन सभी का अंतिम संदेश यही है कि मानव स्वयं को जाने और फिर जैसा स्वयं के प्रति दूसरों से व्यवहार की कामना करता है, वैसा ही व्यवहार वह दूसरों से करें । यही आध्यात्मिक दृष्टि है ।
मानव का प्रकृति और सृष्टि के साथ तादात्म्य तथा उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार ही अध्यात्म का अभीष्ट है। इसी दिशा में वैदिक ऋषि का आहवान है-
मित्रस्त्र मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीशन्ताम
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे
सम्पूर्ण प्राणीमात्र मुझ से मित्र भाव रखें, तथापि मेरा भी यही कर्तव्य है कि मैं भी सम्पूर्ण सृष्टि तथा प्रकृति के प्रति मित्रता का भाव रखूं| यह भाव सदैव व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार में बना रहें, यही आध्यात्म है इसी भाव को हमारे सभी धर्म ग्रंथों में बड़े ही अच्छे ढंग से विभिन्न आख्यानों और कथाओं के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे आध्यात्मिक विकार और ताप का शमन हो और चित्त निष्कपट, सरल और विशुद्ध होकर सबके कल्याण के लिए प्रवृत्त हो, यही धर्म है।
श्रीमद् भागवत में महर्षि वेदव्यास ने यही बात कही है-
धर्म:- प्रोज्झितकतवो त्र परमो निर्मत्सराणां सताम
इसी आध्यात्मिक भाव को कठोपनिषद के ऋषि ने कहा है कि जो व्यक्ति शरीर, मन और बुद्धि से अपने अस्तित्व को जान लेता है और अपने स्व में प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसे विशुद्ध आत्मानंद की अनुभूति होती है और वह आनंद शाश्वत होता है-
एक वशी सर्वमूतान्तरात्मा, एक रुप बहुदा य : करोति
तमात्म स्थं ये नुपश्यन्ति घारी:, तेषा सुख शाश्वंत नेत रेषाम
मानव के के अंत:करण की सभी प्रवृतियां निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब विराट के साथ एकाकार होने के लिए प्रयत्न करती हैं, उससे प्रसूत आनंद ही अध्यात्म है।
भारतीय जीवन शैली अपने शुद्ध रूप में आध्यात्मिक ही है। उसका प्रत्येक तत्व व पहलू अध्यात्म से भाविक है और सृजित है और उसका लक्ष्य एक ही है सत्य का साक्षात्कार और स्वयं में सत्य का अविष्कार जिसको महापुरुषों ने विद्वानों ने, अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषित किया है और जानने की कोशिश भी की है।
भारतीय वैदिक वाङ्मय तथा संस्कृति इस सनातन आध्यात्मिक चेतना को एक नए दृष्टिबोध के साथ उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी भारत के राष्ट्र निर्माताओं और दार्शनिकों जिनमें स्वामी विवेकानंद, योगी श्री अरविंद, महात्मा गांधीजी, विनोबा भावे आदि प्रमुख हैं, ने प्रस्तुत किया। यह नवजागरण का मानवीय अध्यात्म था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ का अध्यात्म दीप स्वामी विवेकानंद ने प्रकट किया था, जिसका प्रकाश अमेरिका तथा अन्य युरोपीय देशों तक पहुंचा था। स्वामी विवेकानंद जी ने वेदांत के तत्व को एक नई दृष्टि दी, जिससे केवल भारत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व आलोकित हो गया। स्वामी विवेकानंद ने तत्कालीन समाज में पीड़ित मानवता की सेवा में अपने अध्यात्म की खोज की।
भारत की आध्यात्मिक परंपरा को उन्होंने ‘‘सेवा ही परमो धर्मः’’ में साकार किया । श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि द्वारा आध्यात्मिक सूत्र को देश के सामने रखा।
कपिल मुनि द्वारा अपनी माता को जो आध्यात्मिक उपदेश दिया गया था, उसका मूल संदेश है कि परमात्मा प्रकृति के कण-कण में और सभी प्राणियों में विद्यमान है, यदि लोग प्राणिमात्र की सेवा बजाय केवल प्रतिमा में स्थूल पूजा- अर्चना करते हैं तो ऐसी उपासना केवल खोखला प्रदर्शन और दिखावा है।
अंह सर्व भूतषु भूतात्मावस्थित: सदा
तमवज्ञा मां मर्त्य: कुरुते र्चा विडाम्बनम
स्वामीजी ने भी राष्ट्र के सभी नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा था कि गरीबों, दलितों और वंचितों की सेवा करना ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ उपासना है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा बार-बार जन्म हो तथा मैं हजारों दु:खों को सहूं ताकि मैं उस एकमात्र परमात्मा की उपासना कर सकूं जिसका अस्तित्व है, वह एकमात्र जिसमें मुझे विश्वास है - सभी आत्माओं का सम्मिलित रूप और इनसे भी परे मेरा परमात्मा जो मूर्त में है, मेरा परमात्मा जो पीड़ितों में है, मेरा परमात्मा जो सभी जातियों, सभी नस्लों के निर्धनों में है- वही मेरी पूजा का विषय है।’’
भारतीय सनातन विचार दर्शन में जो बातें कहीं गई हैं, उसका सीधा सम्बंध अंतर्मन से है । इस दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति अपने भीतरी मनोभावों से ही बाहर की प्रकृति और समाज के प्रति अपने व्यवहार और विचारों को कार्य रूप में परिणित करता है। ये विचार और व्यवहार ही जब लम्बे समय तक चलते हैं और लोगों द्वारा अपनाए जाने लगते हैं, तो वे ही जीवन मूल्य कहलाते हैं; क्योंकि वे मनुष्य की भीतरी आध्यात्मिक प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।
अतएव विवेकानंद द्वारा सेवा को सर्वोपरि मानकर समाज के पुन: जागरण का आह्वान वास्तव में अध्यात्म से प्रसूत आंदोलन ही था।
श्रीमद् भागवत में कपिल मुनि द्वारा दूसरी महत्वपूर्ण जो बात कही गई, उसको स्वामीजी ने अपने कार्यों और आचरण से एक उदाहरण के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किया और कहा कि भारत की उन्नति, प्रगति तथा उत्कर्ष के मूल में सेवा की सबसे प्रमुख भूमिका होगी।
कपिल मुनि के माध्यम से परमात्मा कहते हैं-
अथ मां र्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम
अर्हयेद्यापमानमानाभ्यां मैत्र्या भिन्नेन चक्षुषा॥
अर्थात सभी प्राणियों में मेरी पूजा अर्चना करो, क्योंकि मैं सब में एकमेव आत्मा हूं और मैंने उनकी देह को अपना मंदिर बना लिया है, इसलिए मेरी पूजा करो, और यह पूजा दान के द्वारा लोगों के अभावों को, दु:खों को, अशिक्षा को दूर करके करिए, किंतु यह कार्य उनका आदर करते हूए करना चाहिए।
इसी सनातन आध्यात्मिक संदेश को स्वामी विवेकानंद ने अपने पुनर्जागरण का मुख्य उद्देश्य घोषित किया और राष्ट्र के नवयुवकों को मानवता की सेवा के लिए पूरी निष्ठा से जुट जाने को कहा।
सनातन हिन्दू धर्म के मूल तत्व सेवा को पुन: प्रतिष्ठित करने का आवाहन करते हुए कहा, ‘‘मानव देह मंदिर में प्रतिष्ठित मानव आत्मा ही एकमात्र पुत्रार्थ भगवान है। अवश्य समस्त प्रणियों की देह भी मंदिर है, पर मानव देह सर्वश्रेष्ठ है, वह मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि मैं उसमें भगवान की पूजा न कर संकू, तो और कोई भी मंदिर किसी काम का न होगा।’’
अध्यात्म के इस सेवा तत्व को योगी अरविंद, महात्मा गांधी तथा विनोबा भावे ने सबसे प्रमुख माना। आचार्य विनोबा भावे के अनुसार ‘‘सत्य, संयम और सेवा के इन तीन सूत्रों में पारमार्थिक जीवन का अध्यात्म अंकुरित और पल्लवित होता है।
श्रीमद् भगवतगीता, जो अध्यात्म तत्व का वैश्विक ग्रंथ है, उसके बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने इसका बड़ा सुंदर विवेचन किया है। कृष्ण कहते हैं-
संनियम्यान्द्रिय ग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्तुवन्ति मामेव सर्वभूत हिते रता:|
जो व्यक्ति अपने इंद्रियों पर संयम रख कर जीवनयापन करते हैं औरसभी के प्रति समान दृष्टि रखते हैं, साथ ही प्राणीमात्र के कल्याण और सेवा में लोग रहते हैं, वे अंततोगत्वा मुझे ही अर्थात परमात्मा को प्राप्त होते हैं।
आज जब इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में मानव विज्ञान, टेक्नालाजी के उत्कर्ष के कारण समस्त सुविधाओं और संसाधनों से परिपूर्ण जीवन जी रहा है, ऐसे समय में भी मानवता को आतंक, अत्याचार, हिंसा, आक्रोश से छुटकारा नहीं मिल रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में सभी प्रकार की सुख सुविधाओं और विपुल उपग्रह पर केवल कुछ मुट्ठीभर लोग ही भौतिक सुख का लाभ उठा पा रहे हैं, दूसरी ओर करोड़ों लोग शारीरिक कुपोषण, रोग और अन्नान्य व्याधियों से ग्रस्त हैं।
किंतु जो लोग भौतिक सुख संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, वे आध्यात्मिक कुपोषण से ग्रस्त है और यही कारण है कि सारा विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है।
जिस प्रकार से विश्व में आतंकवाद ने पैर पसारा है और स्थान-स्थान पर हिंसा का ताडंव हो रहा है, उससे यह निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि यदि इन खतरों से बचने के लिए कोई सुनिश्चित प्रयत्न नहीं किए गए तो विनाश सुनिश्चित है।
कई वर्ष पहले बटेर्रण्ड रसेल ने इस बात को जान लिया था, यद्यपि वे अनीश्वरवादी थे, आध्यात्मिकता में बहुत विश्वास नहीं था, फिर भी उन्होंने अध्यात्म और जीवन मूल्यों के महत्व को समझा था और कहा था‘‘जीवन मूल्य कोई यांत्रिक वस्तु नहीं है, मशीन शैतान का आधुनिक रूप है और इसकी पूजा अर्थात पैशाचिकता - चाहे प्रत्येक वस्तु मशीनी हो जाए किंतु जीवन मूल्य यांत्रिक या मशीनी नहीं हो सकते और यह एक ऐसी बात है जो किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए|’’
सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक आंदोलन को चलाने की आवश्यकता और उसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वामी विवेकानंद ने आज से कई वर्ष पहले अनुभव कर लिया था, तभी उन्होंने उस समय कहा था, ‘‘मेरे राष्ट्र का प्रमुख तत्व है यह लोकातीतवाद अर्थात अध्यात्म, पार जाने का यह संघर्ष, प्रकृति के मुखौटे को उतार देने का यह साहस और किसी भी कोमल तथा किसी भी प्रकार के खतरे को उठा कर उस पार की झलक पा लेना-क्या तुम इस भाव को प्रोत्साहित करना चाहते हो। ऐसा करने का एक ही रास्ता है कि राजनीति और सामाजिक पुननिर्माण के बारे तुम्हारे भाषण और पैसा कमाने के ढंग के बजाए तुम्हें संसार को आध्यात्मिक ज्ञान देना है।
वेदांत की विचारधाराओं का प्रचार करना होगा, इन्हें न केवल जंगल और गुफाओं में वरन वकीलों और न्यायाधीशों, मंदिरों, गरीब की कुटिया, मछली पकड़ने वाले मछुआरों और विद्यार्थियों तक इस संदेश को पहुंचना होगा।’’
आधुनिक युग के कई पश्चिमी विचारकों ने भी अध्यात्म के इस अवदान के लिए भारत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है।
प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार बिल ड्यूटेंट ने अपने ग्रंथ ‘स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ के पहले खण्ड में ‘अवर ओरियंटल हेरिटेज’ शीर्षक में बताया कि ‘भारत हमें परिपक्व बुद्धि, सहनशीलता और शालीनता, अपरिग्रह, संतोष, शांति तथा सभी प्राणियों एवं प्रकृति के प्रति एकता और प्रेम की शिक्षा देने का सामर्य्थ रखता है।’ यही अध्यात्म है, जिसकी परिणति सेवा में होती है।
मानव जीवन में आध्यात्मिक दृष्टिबोध की आवश्यकता को आज बड़ी ही गहनता से अनुभव किया जा रहा है। सभी प्रकार की सुख सुविधाओं तथा संसाधनों के बावजूद जीवन में जो रिक्तता और खालीपन पैदा हो रहा है, उससे सामाजिक और वैयक्तिक जीवन बिखर रहा है।
जीवन को सफलता तथा शांति के साथ जीने के लिए विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक विचारक दीपक चोपड़ा की एक बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसका नाम है ‘दि सेवन स्प्रिचुअल लॉज ऑफ सक्सेस’ अर्थात सफलता के सात आध्यात्मिक नियम। उसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि यह वास्तव में सफलता के नहीं बल्कि जीवन के आध्यात्मिक नियम हैं।उनका कहना है कि जब व्यक्ति को अपने जीवन में ईश्वरत्व की अद्भुत अभिव्यक्ति का अनुभव होने लगताहै तभी सफलता का सही अर्थ समझ में आता है। पुस्तक के अंत में वह पाठक से तीन वचन देने की बात कहते हैं।
ये तीनों ही वचन आध्यात्मिक दृष्टिबोध से ओतपोत हैं। वे पहले वचन के बारे में कहते हैं -अहंकार को छोड़ कर अपने आध्यात्मिक प्रयासों से अपनी श्रेष्ठता को खोजने का वचन। दूसरा- व्यक्ति अपने भीतर प्रवेश करके अपनी असाधारण योग्यता का आविष्कार करने का वचन और तीसरा तथा सबसे महत्वपूर्ण यह कि व्यक्ति मानवता के कल्याण के लिए कैसे सहायक हो सकता है, इस प्रश्न का स्वयं उत्तर खोज कर व्यक्ति जब अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के साथ तालमेल बैठा कर दूसरों की सेवा और सहायता के लिए स्वयं प्रेरित होता है तो यह अध्यात्म की परिणति है।
अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के अंदर देवत्व की खोज और दूसरे को देवता मान कर उसकी सेवा और अर्चना करना।
स्वास्थ्य क्या है ?
स्वास्थ्य की सटीक परिभाषा आयुर्वेद में प्राप्त होती है। वहां कहा गया है: समदोष: समाग्निश्च समधातु मल क्रिय:। प्रसन्नात्येन्दिय मन: स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
अर्थात् वह व्यक्ति स्वस्थ है जिसके तीनों दोष- वात, पित्त, कफ ठीक प्रकार से कार्य कर रहे हों। इसके साथ-साथ उसकी अग्नियां सम हों। अग्नियां 13 प्रकार की होती हैं: सात धात्वाग्नि, पांच भूताग्नि और एक जठराग्नि। भूख ठीक लगती हो और भोजन का पाचन अच्छा होता हो। सातों धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) का निर्माण ठीक हो रहा हो। मल, मूत्र, पसीना आदि सही प्रकार से बाहर निकल रहे हो।
अर्थात् शरीर में किसी प्रकार का रोग अथवा असंतुलन न हो। साथ ही, व्यक्ति की सभी इन्दियां (पाँचों ज्ञानेन्दियां व पांचों कर्मेन्द्रियां), मन व आत्मा प्रसन्न हों, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है।
अत: स्वास्थ्य का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक आरोग्य नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आरोग्य भी है। इस संबंध में यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति जितना अंतर्मुखी होगा, उतना ही ज्यादा स्वस्थ होगा।
आज के भौतिक सुख सुविधा तकनीकी संपन्नता के सूचना प्रौद्योगिकी संचार संजाल परिवेश के हिसाब से मनुष्य ज्यादा बहिर्मुखी होता जा रहा है। इस कारण अधिकतर लोग अस्वस्थ हो रहे।
वस्तुतः शरीर के रोगों का नाश करने की शक्ति हमारे अंदर ही है। बस उसे कुछ क्रियाओं के द्वारा बढ़ाना और पहचानना होता है। ऐसा करने से व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। अंदर की शक्तियों का जागरण आध्यात्मिक जागृति से संभव है।
आज चिकित्सा के क्षेत्र में पहले के मुकाबले बेहतर सुविधाएं, दवा और उपकरण उपलब्ध हैं, फिर भी रोगों पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है? यह सही है कि पहले की अपेक्षा आज चिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए शोध हो रहे हैं, रोगों पर काबू नहीं होने और नए घातक रोगों के सिर उठाने का कारण यह है कि हम अपने आंतरिक स्वरूप के साथ नहीं जुड़ पा रहे हैं।
जब तक हम अध्यात्म की दिशा में आगे नहीं बढ़ेंगे, तब तक रोग के घेरे में रहेंगे। इसलिए आज आध्यात्मिक स्वास्थ्य की अत्यधिक जरूरत है। अगर आध्यात्मिक स्वास्थ्य हासिल हो जाए, तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य आसानी से प्राप्त हो जाता है।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य से क्या तात्पर्य है?
सनातन धर्म दृष्टि से देखें तो अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही आध्यात्मिक स्वास्थ्य है। यह बहुत उच्च स्थिति है। अपने स्वरूप में स्थित होना सरल बात नहीं है। इसके लिए पहले अपने स्वरूप को पहचानना होगा और उसका अनुभव करना होगा। अपने भीतर से जुड़ना होगा।
आज सामान्यतया व्यक्ति परिवार से, धन-दौलत से, जमीन-जायदाद से, रिश्ते-नातों से ओपचारिक रूप से जुड़ता है। गहराई में देखा जाए तो वह अपने से बाहर दिखाई देने वाले शरीर से जुड़ता है। यह जुड़ना वास्तविक जुड़ना नहीं है, क्योंकि यह सब तो एक दिन छूट ही जाना है।
स्वयं के असली स्वरूप को पहचानने के लिए बाहर का सब कुछ जाना हुआ, याद किया हुआ, पाया हुआ, बाहर ही छोड़कर शांत भाव से स्थिर हो जाना होता है। जब तक बाहर का छूटेगा नहीं, तब तक भीतर का दिव्य आत्मदर्शन मिलेगा नहीं। यह स्थिति निर्विचार की अवस्था है। इसे ध्यान की अवस्था भी कहा गया है। यह स्थिति आध्यात्मिक स्वास्थ्य की अवस्था है।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य उपलब्धि की इस अवस्था में दृष्टा अपने ही स्वरूप में स्थित हो जाता है। जब साधक एक बार अपने स्वरूप का दर्शन कर लेता है, तब उसके भीतरी मन के मलों का नाश होने लगता है।
अनुकूलता स्थापित हो जाती है जैसे कि काम, क्रोध, लोभ और मोह उसे सताते नहीं हैं। चिंता, चिंतन में बदल जाती है। तनाव, शांति में। सुख-दुख, आनन्द में। निराशा, प्रसन्नता में। घृणा, प्रेम में तब्दील हो जाता है। हिंसा, करुणा में। झूठ, सत्य में। कामवासना, ब्रह्मचर्य में। चोरी का भाव अस्तेय में। इच्छाएं संतुष्टि में। वाणी का तीखापन कोमलता में। आहार मिताहार हो जाता है। सबके साथ मित्रता व प्रेम का भाव आ जाता है, फिर न कोई शोक होता है, न रोग होता है। अवगुणों, मलिनताओं, दुखों का स्वत: ही नाश होने लगता है।
आध्यात्मिक स्वास्थय द्वारा आरोग्य प्राप्त ऐसे व्यक्ति के लिए फिर भी कुछ अशुभ नहीं होता, क्योंकि वह आत्मदर्शन कर चुका होता है। शरीर को स्वस्थ रखने का उसका थोड़ा प्रयास भी सार्थक सिद्ध होता है। ऐसे में योग की साधना पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने वाली सिद्ध होती है।
अतः हम किसी भी धर्म के मानने वाले हों और ईश्वर के किसी भी स्वरुप पर आस्था रखते हों, इन सबके मूल में निहित अध्यात्म हमें स्वस्थ रहने की प्रेरणा देता है ।
सदियों पूर्व आयुर्वेद के मनीषी सुश्रुत ने स्वास्थ्य को परिभाषित करते समय "सम दोषः समअग्निः समधातु: मल: क्रियाः प्रसन्नआत्मइन्द्रियः मनः स्वस्थमितिधीयते ! कहकर स्पष्ट की थी ।
वर्तमान के कुछ शोध से यह बात और अधिक पुख्ता साबित हुई है कि व्यक्ति की धार्मिक आस्था और विश्वास उसकी पर्सनालिटी के लिए जिम्मेदार होता है ।
वैज्ञानिक डान कोहेन, एसिस्टेंट प्रोफ़ेसर,रेलीजीयस स्टडीज, यूनिवर्सीटी आफ मिसौरी के अनुसार आध्यात्मिक चेतना विकसित होने पर व्यक्ति स्वयं ( मैं) के भाव से दूर होता हुआ विस्तृत एकात्म चिंतन अर्थात ब्रह्माण्ड से अपने जुड़ाव (एकात्मकता ) को महसूस करने लगता है ।
वर्तमान शोध के परिणामों में यह बात साफ़ देखी गयी कि इन सभी धर्मावलम्बियों में पायी गयी प्रचुर आध्यात्मिक चेतना उनके अच्छे मानसिक स्वास्थ्य से सीधे समबंधित थी । इससे पूर्व के कई शोध में भी यह पाया गया था कि सकारात्मक आध्यात्मिक चेतना व्यक्ति को विभिन्न घातक अवस्थाओं जैसे: कैंसर,रीढ़ की हड्डी की चोट या दिमागी चोट से उबरने में काफी मददगार होती है ..
अतःसनातन धर्म संस्कृति में आस्था और विश्वास का मूल इसके अन्दर निहित आध्यात्म है जो हमें मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करने के साथ-साथ गंभीर परिस्थितियों को सरलता से जूझने में मददगार होता है साथ ही व्यक्ति आध्यात्मिक स्वास्थ्य उपलब्धि अर्जित करके अपने जीवन में सर्वांगीण प्रगति प्राप्त करके आत्म उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता है।
🔸संपर्क🔸
डा सुरेंद्र सिंह विरहे
उप निदेशक
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी संस्कृति परिषद् भोपाल
शोध समन्वयक
आध्यात्मिक नैतिक मूल्य शिक्षा शोध
धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग मध्य प्रदेश शासन
मनोदैहिक आरोग्य आध्यात्मिक स्वास्थ्य विषेशज्ञ एवं लाईफ कोच, स्प्रिचुअल योगा थेरेपिस्ट
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