जिन्दगी में अध्यात्म क्यों जरूरी है ..
जो कुछ भी आपको शांतिपूर्ण, हर्षित और संतुष्ट महसूस कराता है वह आध्यात्मिकता है। दयालुता और भलाई के सभी कार्य जिनका आप पूरे दिन सामना करते हैं। मानसिक या भावनात्मक जुड़ाव के गहन स्तर पर आधारित संबंध होना। भौतिक मूल्यों या खोज से संबंधित नहीं है। गहरी भावनाओं और विश्वासों के साथ करना, जिसमें एक व्यक्ति की शांति की भावना, उद्देश्य, दूसरों से संबंध और जीवन के अर्थ के बारे में विश्वास शामिल हैं। ऐसी गतिविधियाँ जो खुद को और जिनके साथ हम बातचीत करते हैं, दोनों को नवीनीकृत, उत्थान, आराम, स्वस्थ और प्रेरित करती हैं।
क्या आप किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य समस्या का सामना कर रहे हैं ? यदि आप किसी भी रोग से पीड़ित हैं या आपके परिवार के किसी सदस्य,मित्र का शारीरिक,मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है वे अगर रोग, विकार, अवसाद, निर्भरता, व्यसन, लत, अनिश्चितता, तनाव, डर कमजोरी आदि से पीड़ित,दुःखी,एवं परेशान हैं तो हमसे संपर्क करें। हम आध्यात्मिक योग चिकित्सा तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों द्वारा पारंपरिक योगिक उपायों, आयुर्वेद औषधि के साथ उपचार - इलाज- योग थेरेपी - आध्यात्मिक हीलिंग आदि से संपूर्ण स्वास्थ्य समाधान एवं निदान प्रदान करते है ..
आध्यात्मिक स्वास्थ्य ...अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही आध्यात्मिक स्वास्थ्य है। यह बहुत उच्च स्थिति है। अपने स्वरूप में स्थित होना सरल बात नहीं है। इसके लिए पहले अपने स्वरूप को पहचानना होगा और उसका अनुभव करना होगा। अपने भीतर से जुड़ना होगा।
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वर्तमान जीवन : आज सामान्यतया व्यक्ति परिवार से, धन-दौलत से, जमीन-जायदाद से, रिश्ते-नातों से जुड़ता है। गहराई में देखा जाए तो वह अपने से बाहर दिखाई देने वाले शरीर से जुड़ता है।
यह जुड़ना वास्तविक जुड़ना नहीं है, क्योंकि यह सब तो एक दिन छूट ही जाना है। स्वरूप को पहचानने के लिए बाहर का सब कुछ जाना हुआ, याद किया हुआ, पाया हुआ, बाहर ही छोड़कर शांत भाव से स्थिर हो जाना होता है। जब तक बाहर का छूटेगा नहीं, तब तक भीतर का आत्मदर्शन मिलेगा नहीं। यह स्थिति निर्विचार की अवस्था है। इसे ध्यान की अवस्था भी कहा गया है। यह स्थिति आध्यात्मिक स्वास्थ्य की अवस्था है।
इस अवस्था में दृष्टा अपने ही स्वरूप में स्थित हो जाता है। जब साधक एक बार अपने स्वरूप का दर्शन कर लेता है, तब उसके भीतरी मन के मलों का नाश होने लगता है। काम, क्रोध, लोभ और मोह उसे सताते नहीं हैं। चिंता, चिंतन में बदल जाती है। तनाव, शांति में। सुख-दुख, आनन्द में। निराशा, प्रसन्नता में। घृणा, प्रेम में तब्दील हो जाता है। हिंसा, करुणा में। झूठ, सत्य में। कामवासना, ब्रह्मचर्य में। चोरी का भाव अस्तेय में। इच्छाएं संतुष्टि में। वाणी का तीखापन कोमलता में। आहार मिताहार हो जाता है। सबके साथ मित्रता व प्रेम का भाव आ जाता है, फिर न कोई शोक होता है, न रोग होता है। अवगुणों, मलिनताओं, दुखों का स्वत: ही नाश होने लगता है। ऐसे व्यक्ति के लिए फिर भी कुछ अशुभ नहीं होता, क्योंकि वह आत्मदर्शन कर चुका होता है। शरीर को स्वस्थ रखने का उसका थोड़ा प्रयास भी सार्थक सिद्ध होता है। ऐसे में योग की साधना पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने वाली सिद्ध होती है।
स्वस्थ कौन? स्वस्थ का अर्थ होता है, स्व में स्थित हो जाना। अर्थात् स्वयं पर स्वयं का नियंत्रण, अनुशासन अथवा पूर्ण स्वावलम्बन। अपने स्वभाव में रहना। अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों परिस्थितियों में समभाव बनाएं रखना, सन्तुलित रहना, राग और द्वेष से परे हो जाना। ऐसी अवस्था में शरीर निरोग, मन निर्मल, विचार पवित्र और आत्मा शुद्ध हो जाती है। स्व का मतलब आत्मा होता है। अतः आध्यात्मिक दृष्टि में आत्म स्वभाव में रहने वाला ही स्व में स्थित अर्थात् स्वस्थ होता है।
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डा सुरेंद्र सिंह विरहे
मनोदैहिक आरोग्य आध्यात्मिक स्वास्थ्य विषेशज्ञ एवं लाईफ कोच, स्प्रिचुअल योगा थेरेपिस्ट
उप निदेशक
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी संस्कृति परिषद्
शोध समन्वयक
आध्यात्मिक नैतिक मूल्य शिक्षा शोध
धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग मध्य प्रदेश शासन
स्थापना सदस्य
मध्य प्रदेश मैंटल हैल्थ एलाइंस चोइथराम हॉस्पिटल नर्सिंग कॉलेज इंदौर
निदेशक
दिव्य जीवन समाधान उत्कर्ष
Divine Life Solutions Utkarsh
पूर्व अध्येता
भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् दिल्ली
"Philosophy of Mind And Consciousness Studies"
Ex. Research Scholar
At: Indian Council of Philosophical Research ICPR
Delhi
utkarshfrom1998@gmail.com
9826042177,
8989832149
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