Saturday, March 25, 2023

सनातन धर्म हिंदू युगांतर गौरवशाली परंपरा की अद्वितीय महान पहचान है।

 सनातन धर्म शाश्वत सत्य और गौरवशाली अतीत का प्रतीक है।

सनातन धर्म हिंदू भारतीय संस्कृति दर्शन इतिहास की युग युगांतर गौरवशाली परंपरा की अद्वितीय महान पहचान है।

"मानव जाति का सनातन धर्म जो भारतवर्ष की युग-युगांतर जीवन शैली ही हुआ करती थी, उसका नामकरण सिंधु नदी पारकर आए आक्रमणकारियों और आगंतुकों नें सिंधु कर दिया और समय के साथ सिंधु - हिंदु (Indus - India) बन गया।


 इस प्रकार भारत को अरब प्रदेश में "हिंदुस्तान" के नाम से जाना गया और हमने सहर्ष ही इस नाम से सम्बोधित अपनी पहचान को अपना लिया। इस तरह सनातन धर्म (शाब्दिक अर्थ "शाश्वत धर्म") का नाम हिंदु धर्म पड़ गया जो सिंधु नदी से व्युत्पन्न है।


यह धर्म एक व्यक्ति,संत, पैगम्बर, या नबी द्वारा नही स्थापित किया गया, क्योंकि ज्ञान तो अनादि है, तथा "भगवान – सृष्टिनिर्माता - मूलसत्" को आत्मसात करने का सनातन "विज्ञान" वेदों में वर्णित है। वेदों के इस विज्ञान को कलियुग के हेतु गीता (कृष्ण-अर्जुन के बीच संवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले 700 छंद की एक रचना) में पुनः सारगर्भित किया गया। 

 सनातन धर्म के अनुसार, देवी देवता भी सूक्ष्म और कारण देही प्राणी हैं, जो स्वकर्म द्वारा दैवीय स्थिति को प्राप्त कर ,स्थूल देह से मुक्त होकर परा प्रकृति में जीवन यापन करते हैं, परंतु वह भी अपूर्ण हैं और कैवल्यम् के लिये प्रयासरत् हैं।


सनातन धर्म में केवल एक ही परमेश्वर (परम निरपेक्ष चेतना) का गुणगान है। वह सच्चिदानंद ही परम स्रोत / ऊर्जा / ब्रह्मांड निर्माता है। ब्रह्मांडीय चेतना के तीन पहलू हैं - सर्वप्रथम सृजनात्मकता ब्रह्मा के रूप में दर्शाया गया है, तत्पश्चात् विलयात्मकता शिव के रूप में चित्रित किया गया और पोषणात्मकता विष्णु के रूप में चित्रित है। वह परम चैतन्यता पारब्रह्म या जगदीश (अस्तित्व के तीनों आयामों के ईश) है।

 

इन ज्ञानपूरित अवधारणाओं को साधारण मनुष्य के चित् पर अंकित करने हेतु, चित्रों और प्रतीकों का उपयोग किया गया। उदाहरण के लिए कुछ देवी देवताओं को सहस्त्रकमल पर विराजमान किया जाता है, इसका मतलब है कि उन जीवात्माओं ने जितेन्द्रीय चैतन्यस्थिति (सभी 10 इंद्रियाँ और उनमें से प्रत्येक के 100 उप-कार्यों पर विजय) प्राप्त कर ली। कुछ सूक्ष्म दिव्य प्राणियों को हम पितृरूप में मार्गदर्शक मानते हैं, इससे ऊँचे कुलदेवी-देवता, उसके उपरांत अन्य देवी और देव तथा उच्चतम हैं महादेव, यद्यपि महादेव कोई देवता नही हैं अपितु, स्वयं सच्चिदानंद हैं; परंतु हम शब्दजाल में फँस जाते हैं।

यह मानव शरीर प्रभुता से एकत्व हेतु एक उत्तम साधन से ज्यादा कुछ नहीं, समस्त विज्ञान की शाखाओं की परिणति "आध्यात्मिक विज्ञान" है। हिंदू धर्म की अनेकों कथाएँ देवताओं का उल्लेख करती हैं और देव असंख्य हैं; क्योंकि आज की मानवरूपी जीवात्मा - कल की भावी देवात्मा है और वह “कल” भविष्य में कितना दूर है, यह हमारे सत्कर्म निर्धारित करते हैं। जब मानव को प्रकृति के रहस्य, आध्यात्मिक विज्ञान के अभ्यास से ज्ञात होते हैं तो उसके कर्म, हम स्वयं की अनभिज्ञता के कारण, अलौकिक शक्तियों द्वारा सम्पन्न समझते हैं।


सभी देवी देवताओं को त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और शिव / महेश) से निम्न परिलक्षित करते हैं। ये देवी देवता भी अपनी सूक्ष्म देह मात्र में कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं और परमेश्वर के साथ एक होने के लिए प्रयासरत हैं; तथा एकत्व प्रगमन हेतु विशिष्ट परिस्थितियों में कभी मानव शरीर धारण करने की भी जरूरत होती है। इस प्रकार, देवी देवता भी सृष्टिनियम की सीमाओं से बंधे हुए हैं, लेकिन सच्चिदानंद सृष्टि के जनक हैं और उससे परे हैं।


इस त्रिमूर्ति को कई अवधारणाओं को समझाने हेतु युग-युगांतर में प्रयुक्त किया गया है जिससे अल्पज्ञानियों को भ्रांति और दुविधा होती है, जैसे:


१. परम निरपेक्ष चेतना है:- सत् (विष्णु) - चित् (शिव) - आनंद(ब्रह्मा)  


२. प्रभुता का आरोहण:- ओम् (ब्रह्मा) - तत् (शिव) - सत् (विष्णु) 


३. त्रिमूर्ति ईश्वर:- परमेश्वर (विष्णु) - महेश्वर (शिव) - ब्रह्मेश्वर (ब्रह्मा) 


४. ईसा मसीह द्वारा प्रस्तुतीकरण:- गाॅड द फादर (विष्णु) - सन् आॅफ गाॅड (शिव) - होली गोस्ट (ब्रह्मा)

५. त्रिगुणी प्रकृति (दुर्गा):- सत् (विष्णु) - रजस (ब्रह्मा) - तमस (शिव) 


६. सृष्टिचक्र:- सृजन (ब्रह्मा) - पोषण (विष्णु) - विलय (शिव) 

७. परम निरपेक्ष चेतना की अभिव्यक्ति:- कर्ता (ब्रह्मा) - धर्ता (विष्णु) - हर्ता (शिव)


देवी देवता प्राणी हैं, जो सूक्ष्म और कारण संसार में आम तौर पर कार्य कर रहे हैं परंतु हम इस लेख में उस दिशा में नही जायेंगे। जितनी उच्चतर जीवात्मा, उतना ही उच्च देवता का विकास। दैवीय स्थितिनुसार एवं कर्मानुसार, देव भी अपने पदों को कुछ समय के बाद खो देते हैं, कुछ भी कैवल्यम् के पद पर आसीन होने से पूर्व प्रत्याभूतित नही है। हाँलाकि, उच्चतर आवृत्तियों से स्पंदनशील सूक्ष्म क्षेत्रों में काल का माप हमारे समय के माप से बहुत भिन्न है। काल की इकाई, परिवर्तन की माप मात्र है और सूक्ष्म जगत् अधिक स्थिर है, इस प्रकार, सूक्ष्म जगत के समय की इकाई - सांसारिक या, अस्तित्व के दृश्य जगत् की तुलना में काफी लंबी है।

सभी अनन्त वैयक्तिक आत्माओं का अंतिम गंतव्य अपने महासागर परमात्मा जनक के साथ एकत्व ही है और उसके बाद ही स्वयं की वास्तविकता का एहसास होता है; परम सच्चाई की अनुभूति। वैयक्तिक आत्माओं (पुरुष) और सृष्टि (प्रकृति) के मिलन से ही गतिविधि चक्र का चलन है और जब विलय (शिव का तांडव) पश्चात्, रचनात्मक चक्र एक निष्क्रिय अवस्था में आता है, तत्पश्चात् पुनः सृष्टि चक्र शुरू होता है और इस प्रकार चैतन्य गतिविधि निरंतर जारी है।


मौलिक तौर पर , अस्तित्व के सात आयाम, परम सत्य के परिचायक हैं। जितना उच्चतर जीवात्मा का विकास, उतना ही उच्च उसके अस्तित्व का आयाम, उतनी उच्च स्वतंत्रता एवं उच्च परिचालन शक्तियों और उच्च स्थिरता के लिए वह अग्रणी रहेगा।


शिरडी साईं बाबा की अलौकिक शक्तियां देखकर हमारे द्वारा उन्हे भगवान करार दिया गया है और इस तरह से सनातन धर्मानुसार देवी-देवता वास्तव में अनंत हैं क्योंकि प्रत्येक मानव, भगवान की एक दर्पण छवि (ईश्वर साक्षात्कार की क्षमता) है। मानवरूप में आने के उपरांत, जीवात्मा का विकास उसकी स्वतंत्र इच्छाशक्ति पर निर्भर है। उत्तरार्द्ध पथ का अनुगमन, अविद्या के कारण नही चुना जाता है।


परमात्मा बलपूर्वक अथवा इच्छा शक्ति के साथ हस्तक्षेप से नहीं, अपितु, व्यक्तिगत आत्माओं का उसके प्रति, प्रेम और भक्ति (तीव्र प्रेमादर ही भक्ति है) के द्वारा अपनाता है।


इस प्रकार देवता भी निस्संदेह अपने भक्तों का सीमित मार्गदर्शन सृष्टि नियम के अधीन करने के लिए बाध्य हैं। जैसे एक कमांडर अपने दल के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं, हालांकि, सेना के नियमों का पालन करना पड़ता है।


शिरडी साईं बाबा, गौतम बुद्ध, राम, कृष्ण, मोहम्मद, यीशु, गुरु नानक और बाकी सबने परम देवत्व तक पहुँचने और पारब्रह्म के साथ एकत्व हेतु, योग का अभ्यास किया;

 परंतु कृष्ण जन्म के पहले दिन से ही परम चेतना को धारणकर अलौकिक शक्तियों के स्वामी थे, अतः उन्हें पूर्णावतार कहते हैं; वह सच्चिदानंद की एक मानव शरीर के रूप में अभिव्यक्ति थे।

सनातन धर्म सच्चिदानंद स्वरूप का दर्शन है, देवी-देवता धर्म कदापि नही। इस भारतभूमि (“भा” अर्थार्त ज्ञान प्रकाश - “रत” अर्थार्त जुड़ा स्थल) को कोटि-कोटि नमन। 


हर मानव अपनी अनूठी शीर्ष यात्रा पर चल रहा है - योगेश्वर होने के लिए; अर्थात पारब्रह्म से योग हेतु।


जय महान  भारतवर्ष...

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